Thursday, September 23, 2010

कोसी अंचल के प्रारंभिक कथाकार

भारत में यद्यपि कथा की परंपरा अत्‍यंत प्राचीन है, तथापि हिन्‍दी कहानी अपने पूरे रूप और संरचना में आधुनिक युग की देने है। इसके उत्‍स उपनिषद, पंचतंत्र, जातक कथा आदि में सरलता से खोजे जा सकते हैं। लेकिन आधुनिक रूप में हिन्‍दी कहानी स्‍पष्‍टत: गद्य के विकास पर निर्भर है।

बीसवीं शताब्‍दी के आरंभ के साथ ही हिन्‍दी कहानी के जन्‍म का इतिहास जुड़ा हुआ है। भारतेन्‍दु-युग में कथात्‍मक शैली के कुछ रोचक निबंध अवश्‍य लिखे गए थे, परंतु 'सरस्‍वती' पत्रिका के प्रकाशनारंभ (1900 ई.) के साथ ही हिन्‍दी कहानी का जन्‍म स्‍वीकृत है। हिन्‍दी के प्रारंभिक कहानीकारों में किशोरीलाल गोस्‍वामी, भगवान दीन बी.ए., माधव प्रसाद मिश्र, बंग महिला, आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल, जयशंकर प्रसाद, वृंदावनलाल वर्मा आदि उल्‍लेखनीय हैं।
हिन्‍दी कहानी के प्रारंभिक दौर में कहानी-कला की व्‍यक्‍ितमूलक और समाजमूलक चेतना का द्वंद्व रहा है। ये दोनों ही चेतनाऍं इस सदी के पॉंचवे दशक के पहले तक समांतर रूप में विद्यमान रही हैं। व्‍यक्‍ितमूलक कहानी के केन्‍द्र में व्‍यक्‍ित होता था, जिसके आदर्श, क्रियाकलाप और व्‍यवहार समाज का निर्धारण करते थे। परंतु समाजमूलक कहानी के केन्‍द्र में एक आदर्श समाज होता था, जिसके अनुसार व्‍यक्‍ित का निर्धारण होता था। ये दोनों ही दृष्‍टियॉं आदर्शवादी थी, जहॉं एक ओर व्‍यक्‍ित का आदर्श था, वहीं दूसरी ओर समाज का। रचना-क्षेत्र में इन दो भिन्‍न प्रवृत्‍तियों का प्रतिनिधित्‍व क्रमश: जयशंकर प्रसाद (पहली कहानी, ग्राम, 1911 ई.) और प्रेमचंद (पहली कहानी, सौत, 1915 ई.) ने किया। डॉ. इंद्रनाथ मदान के अनुसार, ''प्रेमचंद की कहानी-कला के मूल में समाज मंगल की भावना है, समष्‍िट-सत्‍य की धारणा है, सामाजिक उद्देश्‍य की प्रेरणा है और प्रसाद का कहानी-साहित्‍य व्‍यक्‍ित-हित, व्‍यष्‍टि-सत्‍य तथा वैयक्‍ितक विकास के उद्देश्‍य से प्रेरित है।'' (हिन्‍दी कहानी : पहचान और परख, पृ.6)

कोसी अंचल के प्रारंभिक कहानीकारों में सर्वाधिक प्रमुख जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' और लक्ष्‍मीनारायण 'सुधांशु' प्रसाद-परंपरा के ही कहानीकार हैं।

छायावादी काव्‍य के एक महत्‍वपूर्ण स्‍तंभ और प्रेमचंद पर पहली आलोचना पुस्‍तक 'प्रेमचंद की उपन्‍यास कला' (1933 ई.) के लेखक जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' की कहानियों के चार संग्रह प्रकाशित हैं--'किसलय' (1929 ई.), 'मालिका' (1930 ई.), मृदुदल' (1932 ई.) और 'मधुमयी' (1937 ई.)। इन संग्रहों में कुल 43 कहानियॉं संकलित हैं। ये कहानियॉं 1926 ई. से 1935 ई के दौरान लिखी गईं, जो समय-समय पर तत्‍कालीन प्रतिष्‍ठित पत्रिकाओं--'चॉंद', 'सुधा', 'माधुरी', 'हंस' आदि में प्रकाशित होती रहीं।
द्विज जी की कहानियों के मुख्‍य पात्र उच्‍च मानवीय गुणों से युक्‍त आदर्श चरित्र हैं। ये चरित्र अस्‍वाभाविक भी प्रतीत हो सकते हैं, परंतु द्विज जी का दावा है कि उन्‍होंने अपने हरेक पात्र की थोड़ी-बहुत झलक इसी समाज में कही-न-कहीं देखी है। उनकी कहानियाँ समाज के लगभग दुर्लभ चरित्रों के माध्‍यम से मानवीय जीवन-मूल्‍यों के उच्‍चादर्शों की भावाभिव्‍यक्‍ित हैं, क्‍योंकि यही उनका अभीष्‍ट है--''मैं ऊँचे आदर्शों का उपासक हूँ, इसलिए मैं अपनी रचना में यथार्थवाद को वहीं तक ले जाता हूँ, जहॉं तक चलकर वह मेरे आदर्शवाद को उज्‍ज्‍वल बनाने में सहायक हो।'' ('किसलय' की भूमिका से)

लक्ष्‍मीनारायण 'सुधांशु' आलोचना की शुक्‍लोत्‍तर परंपरा की एक कड़ी के रूप में अधिक जाने जाते हैं, परंतु उनकी कहानियों के दो संग्रह भी प्रकाशित हैं--'गुलाब की कलियॉं' (1928 ई.) तथा 'रस रंग' (1929 ई.)। उनकी कहानियॉं भावना-प्रधान हैं। आचार्य शिवपूजन सहाय के अनुसार, ''शब्‍द-योजना का चमत्‍कार और रस-प्‍लावित भावों की मनोहारता इनकी कहानियों की विशेषताऍं हैं।'' (जयंती स्‍मारक ग्रंथ, पृ 565) 'रसरंग' में प्रकाशित उनकी नौ कहानियॉं साहित्‍य के नौ रसों पर आधारित कहानियों के रूप में एक प्रयोग ही हैं, जिसे काफी सराहना मिली थी।
(देवेन्‍द्र कुमार देवेश के आलेख 'हिन्‍दी कहानी-यात्रा में कोसी अंचल का योगदान', मुहिम, अक्‍टूबर-दिसंबर 1999, पूर्णिया, का एक अंश)

आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने हिन्‍दी कहानियों की विभिन्‍न प्रवृत्‍तियों का उल्‍लेख करते हुए 'द्विज' जी की कहानियों का विशेष उल्‍लेख किया है और इस बात का संकेत किया है कि उनकी कहानियॉं 'गुलेरी' जी की सामान्‍य घटना प्रधान कहानी कहानी 'उसने कहा था' और अनुभूति प्रधान कहानियों जैसे चंडी प्रसाद शर्मा 'हृदयेश' की 'उन्‍मादिनी' का मनोरम समन्‍वय उपस्‍िथत करती हैं।

कांति कुमार जैन ने द्विज जी कहानियों पर केन्‍िद्रत अपने एक लेख में लिखा है कि संवेदना में प्रसाद और शिल्‍प में प्रेमचंद के आत्‍मीय जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' जैसे कहानीकार हिन्‍दी में अद्वितीय हैं।....अपनी बात कहने का जो सरल, संप्रेषणीय, जनतांत्रिक ढंग 'द्विज' जी ने अपनाया था, वह आज भी उपयोगी और प्रासंगिक है। बल्‍िक उसकी महत्‍ता आज और भी बढ़ गई है। प्रेमचंद जी ने 'भविष्‍य किनका' नामक एक लेख में हिन्‍दी के जिन साहित्‍यकारों के भविष्‍य में भी प्रासंगिक बने रहने का उल्‍लेख किया है, उनमें 'द्विज' जी का भी नाम है। मैं समझता हूँ कि प्रेमचंद जी ने 'द्विज' जी को उनकी कहानियों के कथ्‍य के लिए नहीं, उनकी भाषा और उनके शिल्‍प को ध्‍यान में रखकर ही यह बात कही होगी।

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